-बालेन्दु शर्मा दाधीच
एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था ने सोवियत या रूसी प्रतिद्वंद्विता को अप्रासंगिक बना दिया और गुटनिरपेक्षता जैसी अवधारणाओं को अर्थहीन। इस व्यवस्था ने संयुक्त राष्ट्र को अमेरिका के सहयोगी संगठन में बदल दिया और राष्ट्रों की बहबूदी एवं बर्बादी को अमेरिका के साथ उनके संबंधों से जोड़ दिया। यह व्यवस्था आज भी मौजूद है। लेकिन कल रहेगी या नहीं, कहना मुश्किल है।
पिछले दो दशकों के दौरान दो बड़ी ताकतों के बीच टकराव जैसी कोई चीज मौजूद नहीं थी। रूस अपनी धराशायी हो चुकी अर्थव्यवस्था और अराजक समाज व्यवस्था को संभालने में जुटा था और चीन खुद को भीमकाय आर्थिक शक्ति बनाने के लक्ष्य की ओर छलांगें मार रहा था। इस दौरान अमेरिका दुनिया को अनुशासित करने वाले एक निरंकुश पुलिसवाले की भूमिका निभाने में लगा था। उसने जिस देश पर चाहा हमला किया, जिस देश में चाहा व्यवस्था बदल दी, जब चाहा संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय कानूनों को अपने मनमाफिक स्वरूप में ढाल लिया और दुनिया मौन देखती रही। इराक में सद्दाम हुसैन की हुकूमत का निर्लज्जतापूर्ण खात्मा करने और श्री हुसैन को फांसी पर चढ़ाए जाने तक के विरोध में कहीं कोई आवाज नहीं निकली, भले ही जिस दलील पर जार्ज बुश ने अमेरिका पर हमला किया (जनसंहार के हथियार जमा करना), वह पूरी तरह निराधार सिद्ध हो गई। उसने अथाह शक्ति जमा कर ली और उसका मनमाना इस्तेमाल किया। ऐसा इस्तेमाल जिसमें वह अपने किसी कृत्य के लिए जवाबदेह नहीं था।
अब रूस ने उसके इस अनियंत्रित प्रभुत्व को लाल झंडा दिखाया है। अबखाजिया और दक्षिणी ओसेतिया को अमेरिका के मित्र जार्जिया से अलग कर उन्हें स्वतंत्र राष्ट्रों के रूप में मान्यता दे दी है, और लगे हाथ यह भी साफ कर दिया है कि अपने आसपास के क्षेत्र में उसी की निर्णायक भूमिका है और रहेगी। पहली बार दुनिया के किसी कोने में हुए किसी युद्ध में अमेरिका की निर्णायक या मध्यस्थकारी भूमिका नहीं है। यदि कोई भूमिका है तो सिर्फ मूक दर्शक की। यह अमेरिका के लिए यकीनन बहुत पीड़ादायक है। उसने अपने उपराष्ट्रपति डिक चेनी को जार्जिया समेत रूस के पड़ोसी राष्ट्रों का दौरा करने भेजा है। श्री चेनी ने पूर्व सोवियत गणराज्यों में अमेरिका के गहरे सरोकारों का वास्ता देते हुए स्पष्ट किया है कि रूसी कार्रवाई को उनके देश ने कितनी गंभीरता से लिया है। उन्होंने कहा है कि राष्ट्रपति बुश ने मुझे इस स्पष्ट संदेश के साथ भेजा है कि इस क्षेत्र के देशों की सुरक्षा और स्थायित्व में अमेरिका की गहरी दिलचस्पी है। ये श्री चेनी ही थे जिन्होंने कुछ दिन पहले कहा था कि जार्जिया के विरुद्ध रूसी कार्रवाई अनुत्तरित नहीं जानी चाहिए।
इस मामले में अमेरिका अकेला नहीं है। ब्रिटिश विदेश मंत्री डेविड मिलिबैंड ने जहां रूसी हमले के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय गठबंधन बनाने की बात कही है वहीं जार्जिया के पड़ोसी उक्रेन के राष्ट्रपति विक्तर युश्चेंको ने जार्जियाई राजधानी ित्बलिसी का दौरा कर उस राष्ट्र के साथ एकजुटता का इजहार किया है। दोनों ही राष्ट्र नाटो और यूरोपीय संघ का हिस्सा भी बनना चाहते हैं जो पश्चिमी देशों से रूसी नाराजगी का एक अहम कारण है। रूस का दावा है कि जार्जिया ने उसके पड़ोसी दोनों स्वायत्त क्षेत्रों पर जो सैनिक कार्रवाई की उसमें अमेरिका और उसके साथियों की सीधी भूमिका है। उसने स्पष्ट कर दिया है कि वह अपने क्षेत्र में बढ़ते अमेरिकी प्रभाव को एक हद से ज्यादा स्वीकार करने को तैयार नहीं है। किसी जमाने में अमेरिका अपने आसपास के क्षेत्र में यूरोपीय देशों के दखल का प्रबल विरोध किया करता था। लगभग वही नीति आज मध्य यूरोप और काकेशस क्षेत्र में रूस अपना रहा है।
अमेरिकी मिसाइल सुरक्षा प्रणाली, सर्बिया के विरुद्ध नाटो की सैन्य कार्रवाई, कोसोवो को अमेरिकी मान्यता आदि के कारण रूस खुद को असुरक्षित महसूस करता रहा है। नाटो में मध्य यूरोप के कई देशों को शामिल किये जाने (जिनमें उसका प्रखर विरोध करने वाले बाल्टिक राष्ट्र शामिल हैं) को रूस में खुद को घेरने की अमेरिकी रणनीति का हिस्सा माना जाता है। इसी असुरक्षा में रूस ने हाल में कई मौकों पर अपनी ताकत का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रदर्शन किया है। पिछले साल लगभग इसी समय रूस ने चीन के साथ मिलकर बहुत बड़ा सैन्य अभ्यास किया था जिसने अमेरिका और उसके सहयोगियों को आशंकित किया। उसने सोवियत संघ के जमाने में बमवर्षक विमानों को रूसी सीमा के बाहर तक निगरानी उड़ानों पर भेजने की परिपाटी भी दोबारा शुरू कर दी है। रूस अपनी नौसेना और वायुसेना को भी बड़े पैमाने पर सुसंगठित और हथियारबंद करने में लगा है। हाल में रूसी उप प्रधानमंत्री सर्गेई इवानोव ने कहा था कि हम करीब-करीब उतने ही जहाज बनाने में लगे हुए हैं जितने कि सोवियत संघ के जमाने में बनाया करते थे। इधर प्रधानमंत्री व्लादीमीर पुतिन ने यह कहकर अपने देश का आक्रामक रुख स्पष्ट किया है कि रूस काला सागर में अमेरिका समेत पश्चिमी देशों के जहाजों के जमाव का जवाब देगा। यह जवाब शांत होगा लेकिन होगा जरूर।
हालांकि जार्जिया के घटनाक्रम को सीधे-सीधे अमेरिका और रूस में लंबे टकराव की शुरूआत मानना जल्दबाजी होगी लेकिन इतना तय है कि दोनों विशाल देशों के संबंधों में बदलाव की शुरूआत हो गई है। अमेरिका ने जहां जार्जिया को `पीड़ित और कमजोर पक्ष` करार देते हुए विश्व समुदाय से उसकी हिमायत करने का आग्रह किया है लेकिन अनेक विकासशील देशों ने उसकी इस बात की अनदेखी की है। हालांकि फिलहाल अबखाजिया और दक्षिणी ओसेतिया को रूस के अलावा किसी अन्य देश ने मान्यता नहीं दी है लेकिन कई देशों ने दबी-दबी जबान में कहा है कि इस मामले में वे रूस के साथ हैं क्योंकि असली मुद्दा जार्जिया और रूस के टकराव का नहीं बल्कि पश्चिमी देशों की निरंकुशता का है। रूस आगे भी पश्चिम के साथ संबंध बनाए रखेगा और मौके-बेमौके अपना प्रभाव दिखाने से भी नहीं चूकेगा। भले ही इसे एक स्पष्ट शीत युद्ध की शुरूआत न माना जाए, किंतु अमेरिकी दबदबे के बोझ में दबी विश्व व्यवस्था में किसी किस्म के संतुलन की उम्मीद तो लगाई ही जा सकती है।
Friday, September 5, 2008
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
अमरीकी दबदबे को कभी तो चुनौती मिलनी ही थी। अच्छी ज्ञानवर्धक पोस्ट।
Post a Comment