- बालेन्दु शर्मा दाधीच
आखिर कब तक भारत चीन की चौधराहट को सहता रहेगा और क्यों? विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र, सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक, दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सेना से लैस परमाणु शक्ति के साथ कोई देश ऐसा कैसे कर सकता है? उन्नीस सौ बासठ की लड़ाई में भारत का पराजित होना हमारे मानस पर गहराई से अंकित है, लेकिन आज का भारत उन दिनों से बहुत आगे बढ़ चुका है।
चीन ने कई बार दावा किया है कि वह भारत का प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि दोस्त है और दोनों देशों का साथ-साथ प्रगति करना संभव है। यदि मैं गलत नहीं हूं तो हम चीन के बर्ताव में कुछ बदलावों से उत्साहित होकर उस पर कुछ-कुछ यकीन भी करने लगे थे। ऐसा इसलिए कि बदलते हुए विश्व में ताकत की परिभाषा सैनिक कम, आर्थिक ज्यादा है। इसलिए भी कि अमेरिकी प्रभुत्व के सामने संतुलनकारी शक्ति के रूप में जिस तिकड़ी के उभार की बात की जाती रही है, उसमें रूस और चीन के साथ-साथ भारत भी है। इसलिए भी कि भारत-चीन व्यापार में तेजी से इजाफा हुआ है और उनके कारोबारी संबंध सुधर रहे हैं। और इसलिए भी, कि विश्व व्यापार वार्ताओं में दोनों देश साथ-साथ विकासशील देशों के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन एनएसजी में अपने आचरण से चीन ने उन सभी लोगों को असलियत से रूबरू करा दिया है जो उसके प्रति संशयवादी दृष्टिकोण छोड़ने की अपील करते रहे हैं। राष्ट्रपति हू जिंताओ द्वारा प्रधानमंत्री डॉण् मनमोहन सिंह को दिए गए आश्वासनों के बावजूद चीन ने वियना में अंतिम क्षणों तक भारत संबंधी प्रस्ताव को रोकने की कोशिश की। जब उसे लगा कि अमेरिकी प्रतिबद्धता और चुस्त भारतीय कूटनीति के चलते वह अपनी कोशिश में सफल नहीं हो सकेगा तो उसने इसे कुछ दिनों के लिए टलवा देने का प्रयास किया। उसे पता था कि यदि एनएसजी में यह प्रस्ताव तुरंत पास न हुआ तो भारत-अमेरिका परमाणु करार अस्तित्व में आने से पहले ही समाप्त हो जाएगा। अमेरिकी संसद में उसे पास करवाने के लिए बहुत कम समय बचा है और उसके बाद वहां सत्ता परिवर्तन होने जा रहा है। लेकिन एनएसजी में चीन अकेला पड़ गया और मजबूरन उसे लाइन पर आना पड़ा।
चीन का खुलेआम अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हमारे खिलाफ खड़े होना गंभीर चिंता का विषय है। इससे स्पष्ट है कि हालात आज भी ऐसे नहीं हैं कि हम चीन की ओर से निश्चिंत होकर अपने आर्थिक विकास पर पूरी तरह ध्यान केंिद्रत कर सकें। हमारे लिए चीनी चुनौती खत्म नहीं हुई है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के बढ़ते दर्जे को चीन अपने हित में नहीं मानता और उसकी लगातार कोशिश रही है कि हम दक्षिण एशिया तक ही सिमटे रहें। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर वह भारत को पाकिस्तान के साथ जोड़ने और खुद को एकमात्र एशियाई शक्ति के रूप में पेश करने की कोशिश करता है। एनएसजी की बैठक में अपने रुख और उसके बाद जारी किए गए बयानों में भी उसने `अन्य उभरते हुए देशों` के नाम पर भारत जैसी छूट पाकिस्तान को भी देने की मांग की है। पाकिस्तान के 1998 के परमाणु विस्फोटों को सही ठहराते हुए उसने भारत के परमाणु विस्फोटों को दोषी करार दिया था और उसका यह मत आज तक नहीं बदला है।
उसने पाकिस्तान, नेपाल, म्यानमार जैसे पड़ोसी देशों का इस्तेमाल भारत को क्षेत्रीय स्तर पर ही उलझाए रखने के लिए किया है। उत्तर पूर्व के उग्रवादी संगठनों को भी उसका परोक्ष समर्थन मिल रहा है। उसने अपने ताकतवर पड़ोसी रूस के साथ सीमा विवाद को हल कर लिया है लेकिन स्वाभाविक कारणों से, भारत के मामले में उसे ऐसी कोई जल्दी नहीं है। बल्कि वह भारत की चिंताओं और आशंकाओं को खत्म नहीं होने देना चाहता। सन 2006 में चीनी राष्ट्रपति हू जिंताओ की भारत यात्रा के ठीक पहले चीनी राजदूत ने अरुणाचल प्रदेश को चीन का हिस्सा करार दिया था। उधर चीनी सेना इस साल अब तक सौ बार भारतीय सीमा का उल्लंघन कर चुकी है। उसने तिब्बत में भारतीय सीमा के करीब अच्छी सड़कों का जाल बिछा दिया है और अक्साईचिन में चौकियां स्थापित की हैं। सबसे ज्यादा आपत्तिजनक चीन का वह उद्दंडतापूर्ण रवैया है जो एक राष्ट्र के रूप में भारत की प्रतिष्ठा के खिलाफ है। भारतीय राजदूत निरूपमा राव के साथ किया गया बर्ताव एक परमाणु संपन्न राष्ट्र के मुंह पर करारे तमाचे के समान था। कुछ महीने पहले भारत के सेनाभ्यास के जवाब में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के एक वरिष्ठ सदस्य झान लियू ने बयान दिया था कि भारत का रुख आक्रामक है और उसे चीन के साथ टकराव के पुराने रास्ते पर नहीं चलना चाहिए। अब तिब्बत में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी का गहरा जाल फैला हुआ है और अबकी बार सीमा-युद्ध होने पर हमारी सेना 1962 की गलती नहीं दोहराएगी जब उसने अपने कब्जे वाले इलाके लौटा दिए थे।
आखिर कब तक भारत चीन की चौधराहट को सहता रहेगा और क्यों? विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र, सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक, दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सेना से लैस परमाणु शक्ति के साथ कोई देश ऐसा कैसे कर सकता है? उन्नीस सौ बासठ की लड़ाई में भारत का पराजित होना हमारे मानस पर गहराई से अंकित है, लेकिन आज का भारत उन दिनों से बहुत आगे बढ़ चुका है। वह उन दिनों की बात थी जब हमारे सैनिकों के पास पुराने जमाने के हथियार थे, दुर्गम पहाड़ी रास्तों में यातायात लगभग असंभव था, हमारी बहादुर सेनाओं के पास गोला-बारूद तक का अभाव था, हमारा शत्रु एक परमाणु शक्ति था और सबसे ऊपर, हमारा राजनैतिक नेतृत्व युद्ध की मन:स्थिति में नहीं था। फिर भी हमारे सैनिक बहुत बहादुरी से लड़े और लड़ते-लड़ते देश के लिए कुर्बान हो गए। वह जज्बा हमारी सबसे बड़ी शक्ति है और हमेशा बना रहेगा। आज हमारी सेना विश्व के सबसे आधुनिक हथियारों से लैस है और प्रशिक्षणों के दौरान हमारे जवानों की काबिलियत ने अमेरिका को भी प्रभावित किया है। हमारी कोई कमजोरी है तो वह है अपने आप में, अपनी शक्तियों में विश्वास न होना। चीन की रणनीतियों, कूटनीतियों तथा मनोवैज्ञानिक युद्ध से मुकाबले के लिए हमें अपनी शक्ति में विश्वास करने, अपने उन्नत भविष्य के प्रति आश्वस्त होने की जरूरत है। पिछले तीन-चार सप्ताह की वैश्विक घटनाओं के बाद शायद हम खुद पर विश्वास करना सीख रहे हैं। चीन ने हमारे इसी आत्मविश्वास की बानगी देखी है।
Friday, September 12, 2008
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4 comments:
बहुत ही अच्छा विषय है...
चीन की इस चौधराहट के पीछे हमारे नेताओं के मन बैठा डर है इसका कारण ये है कि हमारे नेता आज भी बासठ री हार के डर से उबर नहीं पाये हैं। आज भी आये दिन चीन के भारत की सीमा में घुसने की खबरे आती रहती है लेकिन कभी भी भारत के नेताओं की तरफ से उसका जवाब नहीं दिया जाता। यही वजह है की चीन की हेकडी बढती ही जा रही है।
दक्षिण एसिया की उन्नति के लिए चीन एवम भारत मे मैत्री आवश्यक है। कुछ साम्राज्यवादी शक्तिया नही चाहती की यह दो बडे राष्ट्रो के बीच मैत्री हो। हर हर महादेव !!!
"चीन ने कई बार दावा किया है कि वह भारत का प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि दोस्त है"
लेकिन हर मौके पर वह हमारी पीठ में छुरी भोंकता है!!
-- शास्त्री जे सी फिलिप
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