- बालेन्दु शर्मा दाधीच
हर दल, हर नेता आतंक के सफाये के लिए ट्रेडमार्क सुझावों, बयानबाजी और आरोपों-प्रत्यारोपों में व्यस्त है। वह लगे हाथ पहले श्रेय और कुछ महीने बाद वोट बटोर लेना चाहता है, बिना यह जाने कि हमारा बुनियादी अपराध-निरोधक तंत्र ऊपर से नीचे तक कितनी अक्षम और दयनीय अवस्था में पहुंच चुका है।
दिल्ली में हुए ताजा हमले और उसके बाद जामिया नगर में दिल्ली पुलिस की दुर्लभ किस्म की चुस्त कार्रवाई के बाद आतंकवाद एक बार फिर राष्ट्रव्यापी बहस के केंद्र में आ गया है। हर दल, हर नेता आतंक के सफाये के लिए ट्रेडमार्क सुझावों, बयानबाजी और आरोपों-प्रत्यारोपों में व्यस्त है। वह लगे हाथ पहले श्रेय और कुछ महीने बाद वोट बटोर लेना चाहता है, बिना यह जाने कि हमारा बुनियादी अपराध-निरोधक तंत्र ऊपर से नीचे तक कितनी अक्षम और दयनीय अवस्था में पहुंच चुका है। नजदीक आते चुनावों के मद्देनजर आतंकवाद तक का अपने-अपने ढंग से लाभ उठाने की कोशिशें हो रही हैं। किसी को हिंदू वोट बैंक की चिंता है तो किसी को मुस्लिम वोट बैंक की। देश की सुरक्षा दोनों की ही वरीयता नहीं है।
हम हिंदुस्तानी आतंकवाद को कड़ा जवाब कैसे देंगे जब देश का गृह मंत्री ही किसी बम विस्फोट के बाद यह कहता हो कि `हम इसके लिए किसी पर दोषारोपण नहीं करना चाहेंगे मगर दोषियों को छोड़ेंगे भी नहीं।` दहशतगर्दों के खिलाफ किस किस्म के समिन्वत हमलों की रणनीति बनाएंगे जब लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव ज्यादातर ताजा आतंकवादी वारदातों के लिए जिम्मेदार माने जा रहे सिमी जैसे संगठन पर प्रतिबंध को ही कोस रहे हों। जब उत्तर प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सलमान खुर्शीद उस संगठन के हक में अदालत में खड़े हो रहे हों। जब आतंकवाद के प्रति नरम रुख अपनाने के लिए केंद्र सरकार को कोसने वाले भाजपा जैसे दल उससे मुकाबले के लिए संघीय जांच एजेंसी बनाए जाने का विरोध कर रहे हों। जब राज्यों में किए जाने वाले कठोर नियमों को केंद्र ने लटका दिया हो और केंद्र की रणनीतियों में विरोधी दलों ने फच्चर फंसा दिया हो। जब आतंकवादी घटनाओं से जुड़े मुकदमों पर एक दशक बीत जाने के बाद भी फैसले न आते हों। जब दिल्ली में आतंकवादी हमला होने के बाद की रात में भी थानों में पुलिसवाले सोते हुए मिलते हों। जब आतंकवाद के शिकार होने वाले लोगों के परिजनों को लाशें सौंपने के लिए अस्पतालों में रिश्वत मांगी जा रही हो। जब घायलों को पुलिस धक्के मार रही हो और चश्मदीद गवाहों से अपराधियों की तरह सलूक कर रही हो और फिर आतंकवादियों के खतरे का सामना करने के लिए अपने हाल पर छोड़ देती हो। लोग ऐसे स्वार्थी, अमानवीय, क्रूर और बुिद्धहीन कैसे हो सकते हैं?
लेकिन भारतीय राजनीति और प्रशासन की यही वास्तविकता है जिसे हम हर आतंकवादी घटना के बाद देखते और महसूस करते हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के शासनकाल में बनाया गया कठोर आतंकवाद निरोधक कानून पोटा आतंकवाद से निपटने की दिशा में एक जरूरी कदम था। कुछ राज्यों में निस्संदेह उसका राजनैतिक दुरुपयोग भी हुआ और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ने सत्ता संभालते ही पोटा को हटाकर पुराना, अपेक्षाकृत कम कठोर आतंकवादी गतिविधियां निवारक कानून (टाडा) लागू करने का फैसला किया। उस समय देश की सर्वोच्च राजनैतिक सत्ता ने आतंकवाद के विरुद्ध हमारे लुंज-पुंज संकल्प को ही अभिव्यक्त किया। पोटा को यदि हटाना ही था तो उसके स्थान पर उससे अधिक कड़ा कानून लाए जाने की जरूरत थी। ऐसा कानून जिसमें उसका दुरुपयोग रोकने की व्यवस्था भी अंतरनिहित हो। लेकिन देश ने आतंकवादियों को एक गलत संकेत भेजा। उस तरह के संकेत भेजना आज तक जारी है। हैदराबाद, फैजाबाद, वाराणसी, सूरत, बंगलुरु, अहमदाबाद, जयपुर और दिल्ली में हुए बम विस्फोटों के बाद भी यदि गृह राज्यमंत्री यह कहते हैं कि देश में करोड़ों नागरिक हैं और सरकार हर एक की सुरक्षा में पुलिस तैनात नहीं कर सकती, तो वह आतंकवादियों को साफ संकेत देता है कि सरकार हालात से निपटने के लिए तैयार नहीं है। धन्य है ऐसे गृह राज्यमंत्री जो यह भूल गए हैं कि देश के हर नागरिक की सुरक्षा ही उनकी एकमात्र जिम्मेदारी है।
Monday, September 22, 2008
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3 comments:
बेहतरीन आलेख.
सही कहा.
सशक्त रचना. वस्तुनिष्ठ!!
-- शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info
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