Friday, September 26, 2008

रूस-चीन-यूरोप से दोस्ती, अमेरिका से साझेदारी

- बालेन्दु शर्मा दाधीच

हो सकता है कि धीरे-धीरे रूस और चीन के इर्द-गिर्द विभिन्न देशों के एकत्र होने की प्रक्रिया शुरू हो लेकिन अर्थव्यवस्था के प्राधान्य के इस युग में कोई देश अमेरिका की कीमत पर रूस-चीन के खेमे में नहीं जाएगा। न आसियान देश, न खाड़ी देश, न दक्षिण अमेरिकी देश, न नाटो के सदस्य और न ही पूर्व वारसा संधि के अधिकांश सदस्य देश। यही बात कमोबेश भारत पर भी लागू होती है।

विश्व राजनीति में भारत के सामने दो स्पष्ट विकल्प हैं। पहला, जिसे अब हमने कुछ हद तक कम कर लिया है लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं किया, वह है- अमेरिका के विरुद्ध उभरते वैश्विक राजनैतिक तंत्र का हिस्सा बनना। यह तंत्र रूस और चीन के इर्दगिर्द घूमता है। दोनों बड़ी सैनिक, आर्थिक और राजनैतिक शक्तियां हैं और आने वाले एक दशक में बाजार की बड़ी ताकतें बनी रहने की स्थिति में हैं। दूसरी ओर अमेरिका और उसके मित्र राष्ट्र हैं जो पारंपरिक रूप से विश्व अर्थव्यवस्था पर दबदबा कायम किए हुए हैं। लेकिन उनकी यही स्थिति आगे भी रहेगी या नहीं, कहा नहीं जा सकता। ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने तो कह ही दिया है कि अमेरिकी वर्चस्व समापन की ओर अग्रसर है। कुछ कुछ यही बात रूस भी कह रहा है जिसने जार्जिया के मुद्दे पर अमेरिकी प्रभुत्व को खुलेआम चुनौती दी है। चीन तो गाहे-बगाहे अमेरिका के खिलाफ खड़ा होता ही रहा है। विकासशील विश्व में भी अनेक देश अमेरिकी वर्चस्व का विरोध करते हैं।

भले ही हमारे कम्युनिस्ट मित्र कुछ भी कहें, देश की दो बड़ी राजनैतिक शक्तियां- कांग्रेस और भाजपा इन विकल्पों में से दूसरे विकल्प को ही चुनना चाहेंगी। भारत ने चीन को अनेक बार आजमाया है लेकिन कहीं न कहीं भारत के प्रति उसका शत्रुभाव बहुत गहरा है, जो आसानी से जाने का नाम नहीं लेता। अमेरिका और यूरोप भले ही भारत को बराबरी का साझेदार मान लें लेकिन चीन कभी हमें बराबरी का दर्जा नहीं देता। उसके साथ आकर भारत अधिक से अधिक यही सोच सकता है कि वह एक और भारत-चीन युद्ध की आशंका से मुक्त होकर विकास पर ध्यान केंद्रित कर सकता है। लेकिन क्या सचमुच हम यह सोच सकते हैं? क्या सचमुच भारत चीनी सैनिक चुनौती की ओर से निश्चिंत हो सकता है? चीन अपने पारंपरिक प्रतिद्वंद्वियों- रूस, ताइवान, जापान आदि के प्रति हमसे कहीं अधिक जिम्मेदारी और सम्मान के साथ पेश आता रहा है। लेकिन अपने पड़ोस में स्थित एक बड़ी लोकतांत्रिक, सैनिक, परमाणविक और आर्थिक शक्ति भारत के साथ नहीं। वह हमें अधिक से अधिक एक कमजोर प्रतिद्वंद्वी समझता आया है। भारत का किसी भी रूप में मजबूत होना उसे अपने राजनैतिक, सैनिक और आर्थिक हितों के प्रतिकूल महसूस होता है। दूसरी ओर आम भारतीय चीन के प्रति 62 के बाद से ही सशंकित रहा है और हर नया अनुभव उसकी आशंकाओं को पुष्ट ही करता रहा है। विभिन्न भारत-पाक युद्धों, भारत-पाक परमाणु परीक्षणों, ताजा परमाणु सौदे तक पर चीन का रुख पाकिस्तान के प्रबल हिमायती का रहा है और रहेगा। तब ऐसे गठजोड़ में, जिसकी बुनियाद आपसी शंकाओं, संदेहों और प्रतिद्वंद्विता पर आधारित हो, शामिल होकर भारत अपना क्या भला करेगा?

रूस भारत का पारंपरिक मित्र है और उसके साथ भारत की मित्रता समय की कसौटी पर खरी उतरी है। सोवियत संघ के विघटन के बाद से रूस लगातार मजबूत भी हुआ है और अब उसने वैश्विक शक्ति-केंद्र के रूप में उभरने की अपनी महत्वाकांक्षा भी स्पष्ट कर दी है। लेकिन आज का रूस कल के सोवियत संघ की तुलना में अकेला है। उसके पारंपरिक साथी अमेरिका और यूरोप के खेमे में जा चुके हैं। हां, उसे कुछ नए साथी भी मिले हैं लेकिन गौर कीजिए तो पाएंगे कि वे सभी विश्व राजनीति में दूसरे छोर पर खड़े, अकेले पड़ गए राष्ट्र हैं। मसलन- ईरान और वेनेजुएला। ज्यादातर पूर्व सोवियत गणराज्य आज रूस से दूरी बना चुके हैं। वारसा संधि के देशों में से भी अधिकांश छितरा कर स्वतंत्र विदेश नीति पर चल रहे हैं। रूस आज भी निर्विवाद रूप से एक बड़ी सैनिक और राजनैतिक शक्ति है लेकिन वह विश्व राजनीति का वैसा समानांतर केंद्र नहीं रह गया है जैसा दो दशक पहले तक था। संयुक्त राष्ट्र और अन्य विश्व संस्थाओं में भी उसकी आवाज उतनी मजबूत और फैसलाकुन नहीं रह गई है। वह अमेरिका जैसी महाशक्ति नहीं रह गया है। हो सकता है कि धीरे-धीरे रूस और चीन के इर्द-गिर्द विभिन्न देशों के एकत्र होने की प्रक्रिया शुरू हो लेकिन अर्थव्यवस्था के प्राधान्य के इस युग में कोई देश अमेरिका की कीमत पर रूस-चीन के खेमे में नहीं जाएगा। न आसियान देश, न खाड़ी देश, न दक्षिण अमेरिकी देश, न नाटो के सदस्य और न ही पूर्व वारसा संधि के अधिकांश सदस्य देश।

2 comments:

फ़िरदौस ख़ान said...

बेहतरीन आलेख है...

दीपक said...

बहुत अच्छा विश्लेषण !! आभार

इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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- मतान्तरः राजनैतिक ब्लॉग
- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com