बालेन्दु शर्मा दाधीच
जम्मू के लोगों को इस बात का अहसास रहा है कि उनका राज्य अलगाववाद के मुहाने पर खड़ा है और उनकी ओर से उठाया गया कोई भी उग्र कदम उसके अलगाववाद की प्रक्रिया को हवा दे सकता है। उनका रुख जिम्मेदाराना रहा है। लेकिन अमरनाथ मुद्दे पर जिस तरह जम्मू के लोगों की धार्मिक भावनाओं की कीमत पर राज्य सरकार एक बार फिर अलगाववादियों के आगे झुक गई उससे जम्मूवासियों की दशकों से अडिग रही सहिष्णुता जवाब दे गई है।
जम्मू आंदोलन एक धार्मिक मुद्दे को लेकर शुरू हुआ है और निस्संदेह उसमें कुछ सांप्रदायिक, धार्मिक एवं राजनैतिक शक्तियों की भी भूमिका है लेकिन उसके पैदा होने के कारण धार्मिक भले ही कहे जा सकते हैं, सांप्रदायिक नहीं। यह एक संयोग ही है कि जम्मू का आक्रोश इस मुद्दे को लेकर सामने आया, अन्यथा वास्तविक मुद्दा तो वही प्रभावशाली लोगों तथा सत्ताधारियों द्वारा प्रभावहीन लोगों की उपेक्षा और नाइंसाफी का है। किसी राज्य में यही समस्या दलित उत्पीड़न के प्रति विद्रोह के रूप में सामने आती है तो किसी राज्य में भूमिहीनों के जन आंदोलनों के रूप में। ऐसा हर उस जगह पर होता है जहां कमजोर की भावनाओं को नकार देना शक्तिशाली ताकतें अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझती हैं।
जम्मू दशकों से कश्मीर घाटी के दबदबे के आगे झुकता रहा है, हालांकि जनसंख्या, आकार तथा राज्य की अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी के लिहाज से वह किसी भी रूप में घाटी से पीछे नहीं है। वह विचारधारात्मक, धार्मिक या राजनैतिक रूप से भी अपने आपको कश्मीर घाटी के नेताओं के अनुकूल नहीं पाता। लेकिन यदि फिर भी उसने कभी राज्य के राजनैतिक, सामाजिक ढांचे का प्रतिरोध नहीं किया तो इसकी बहुत बड़ी वजह राज्य की संवेदनशील स्थिति और उसका भारत की एकता एवं अखंडता से जुड़ा होना भी है। जम्मू के लोगों को इस बात का अहसास रहा है कि उनका राज्य अलगाववाद के मुहाने पर खड़ा है और उनकी ओर से उठाया गया कोई भी उग्र कदम उसके अलगाववाद की प्रक्रिया को हवा दे सकता है। लेकिन अमरनाथ मुद्दे पर जिस तरह जम्मू के लोगों की धार्मिक भावनाओं की कीमत पर राज्य सरकार एक बार फिर अलगाववादियों के आगे झुक गई उससे जम्मूवासियों की दशकों से अडिग रही सहिष्णुता जवाब दे गई है।
जम्मू के जागृत आक्रोश का अनुमान कश्मीरी नेताओं को भी हो गया है। मीरवाइज उमर फारूक से लेकर सज्जाद गनी लोन और यासीन मलिक जैसे नेताओं ने इस बात को स्वीकार किया है कि आज कश्मीर घाटी और जम्मू दो अलग-अलग ध्रुवों पर हैं और इसीलिए उन्होंने कहा है कि यह एक किस्म का युद्ध है (जो जम्मू ने कश्मीर के खिलाफ छेड़ दिया है)। इसीलिए वे व्यापार के लिए वैकल्पिक मार्ग तलाशने और यहां तक कि पाक अधिकृत कश्मीर तक में सेबों की फसल भेजने और बेचने की बात कर रहे हैं। हालांकि पाकिस्तान और आतंकवादी तत्व इस परोक्ष विभाजन का लाभ उठाने की कोशिश कर सकते हैं लेकिन वे जानते हैं कि हुर्रियत कांफ्रेंस, जेकेएलएफ और अन्य अलगाववादी दल राजनैतिक रूप से कमजोर हुए हैं।
कश्मीर और जम्मू का जो राजनैतिक ध्रुवीकरण आज साफ दिखाई दे रहा है वह प्रच्छन्न रूप में शुरू से मौजूद रहा है। वह एक ऐतिहासिक वास्तविकता है जो समय समय पर जम्मू के लोगों द्वारा अलग राज्य की मांग के आंदोलन और लद्दाख की जनता द्वारा अपने क्षेत्र को भारत के साथ पूरी तरह एकाकार किए जाने की मांग के रूप में अभिव्यक्त हुआ है। इस राजनैतिक विभिन्नता ने चुनावों के समय अपने आपको अभिव्यक्त करने की कोशिश भी की है लेकिन हर बार राजनैतिक गणित ने उसे निष्प्रभावी कर दिया। कश्मीर घाटी के राजनैतिक अधिनायकवाद का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि आजादी के बाद पहली बार गुलाम नबी आजाद के रूप में जम्मू क्षेत्र का कोई व्यक्ति राज्य का मुख्यमंत्री बना था, जबकि प्रदेश के क्षेत्रफल में घाटी का हिस्सा महज बारह फीसदी है? प्रदेश में कुल छह लोकसभा क्षेत्रों में से तीन कश्मीर घाटी में और 87 विधानसभा क्षेत्रों में से 46 कश्मीर घाटी में हैं, जबकि वह आबादी तथा क्षेत्रफल दोनों के लिहाज से जम्मू और लद्दाख क्षेत्रों की तुलना में बहुत छोटी है। जम्मू में सिर्फ 37 विधानसभा क्षेत्र और दो लोकसभा क्षेत्र आते हैं।
जम्मू कश्मीर का राजनैतिक ढांचा तय ही इस तरह किया गया है कि उसमें राज्य के राजनैतिक नेतृत्व पर घाटी का प्रभुत्व बना रहना पूर्व-निश्चित है। यही वजह है कि कश्मीर के राजनैतिक दल राज्य परिसीमन आयोग की सिफारिशों को लागू किए जाने का भी विरोध कर रहे हैं जिनके अमल में आने पर जम्मू क्षेत्र में 45 विधानसभा क्षेत्र होंगे जबकि कश्मीर घाटी में उनकी संख्या 42 रह जाएगी। लेकिन क्या और कब ऐसा हो पाएगा? खास कर उस हालत में जबकि परिसीमन विधेयक पास किए जाने के लिए राज्य विधानसभा में दो तिहाई बहुमत की जरूरत है और यह समीकरण हमेशा घाटी के दलों के पक्ष में जाता है।
Friday, August 8, 2008
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8 comments:
लगता है, टिप्पणियों में स्पैम आ रहे है.
अच्छा लिखा है.
बहुत ही बढ़िया लिखा है आपने. आपके सवाल (हालांकि वे सवाल के रूप में नहीं हैं) पूरी तरह से उचित हैं. जम्मू में जो कुछ हो रहा है उसकी नींव बहुत पहले से डाली जा चुकी थी. अमरनाथ श्राइन बोर्ड और जमीन का मामला तो केवल संयोग की बात है.
आन्दोलन धार्मिक है. साम्प्रदायिक बताने वाले लोगों को अपनी बात पर एक बार फिर सोचना चाहिए.
जब तक धार्मिक आस्थाओं का दबदबा रहेगा इस मुद्दे पर ओछी राजनीति चलती रहेगी।
आप धीरे धीरे मेरॊ पसंद मे शामिल होते जा रहे है :)
बहुत अच्छा analysis है जम्मू-कश्मीर की स्थिती का.
जम्मू की स्थिति का बहुत सही विश्लेषण किया है आपने,पर लगता है कांग्रेस विरासत मैं मिली इस समस्या को बाप दादा की बनाइ किसी हवेली की तरह सहेज कर रखना चाहती है...वरना पंडित नेहरू को हम भूल जायेंगे...ये नासूर हमें क्या जीवन भर भुगतना है
behad sateek aalekh. kamzor samjhe jane wale jab ek jut ho jayein to wo ek badi taqat ban sakte hain
आप सबका बहुत बहुत धन्यवाद। संजय भाई स्पैम हटा दिए गए हैं। पंगेबाज जी, आपका स्वागत है। शिवकुमारजी, हमारे विचार मिलते है। अंशुमालीजी, चूंकि धर्म हमारे दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है इसलिए धार्मिक संवेदनशीलताओं को ध्यान में रखना सत्ताधारियों के लिए जरूरी है और यह बात किसी एक धर्म के संदर्भ में नहीं कही गई है, सभी धर्मों की आस्थाओं का समुचित आदर होना चाहिए। सिरिल भाई, मिहिर भोज भाई, मनीषजी, आपका भी धन्यवाद।
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