बालेन्दु शर्मा दाधीच
पाकिस्तान के ताजा घटनाक्रम में यदि कोई स्पष्ट राजनैतिक विजेता उभरा है तो वह आसिफ अली जरदारी नहीं बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ हैं। हो सकता है कि कुछेक सप्ताहों या महीनों के अंतराल के बाद नवाज शरीफ देश में नई राजनैतिक परिस्थितियों की रचना कर पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के आल्हादकारी विजयघोष पर पूर्णविराम लगा दें।
पाकिस्तान के राष्ट्रपति पद से परवेज मुशर्ऱफ की विदायी से निरंकुश तानाशाही के नौ साल लंबे सिलसिले का समापन हुआ है तो लोकतांत्रिक राजनीति के एक नए दौर की शुरूआत भी हुई है। हो सकता है कि पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष आसिफ अली जरदारी की आशाओं के अनुरूप वहां लंबे अरसे बाद पीपीपी की अगुआई में एक मजबूत और टिकाऊ विशुद्ध लोकतांत्रिक नेतृत्व की शुरूआत हो। यह भी असंभव नहीं है कि परवेज मुशर्ऱफ के आकलन के मुताबिक वहां दोनों प्रमुख राजनैतिक दलों में टकराव का दौर शुरू हो जाए और राजनीति के सूत्र अधिक समय तक उनके हाथ में न रह पाएं। लेकिन शायद सबसे मजबूत संभावना यह है कि कुछेक सप्ताहों या महीनों के अंतराल के बाद पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ देश में नई राजनैतिक परिस्थितियों की रचना कर पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के आल्हादकारी विजयघोष पर पूर्णविराम लगा दें।
नवाज शरीफ ने देश लौटने के बाद, बिना किसी प्रत्यक्ष लड़ाई के, साल भर से भी कम समय में जिस राजनैतिक चतुराई के साथ अपने सर्वशक्तिमान शत्रु को धराशायी किया (या करवाया) है, वह राजनीति के अध्येताओं के लिए कौतूहल का विषय है। उनकी राजनीति के आगे पूर्व जनरल परवेज मुशर्ऱफ की रणनीतियां असहाय हो गईं और आसिफ अली जरदारी जैसे अनुभवहीन राजनीतिज्ञों ने लगभग उसी अंदाज में सारे घटनाक्रम को अंजाम दिया जैसा भले ही वे चाहते हों या नहीं पर नवाज शरीफ चाहते थे। यह सब इसलिए क्योंकि पाकिस्तान में सत्ता भले ही पीपुल्स पार्टी के हाथ में हो, उसकी चाबी नवाज शरीफ के पास है जिन्हें इसका इस्तेमाल करना आता है।
पाकिस्तान के ताजा घटनाक्रम में यदि कोई स्पष्ट राजनैतिक विजेता उभरा है तो वह आसिफ अली जरदारी नहीं बल्कि नवाज शरीफ हैं। नवाज शरीफ किस तरह नवंबर 2007 में निर्वासन से वापसी के बाद से राजनैतिक दृष्टि से मजबूत होते चले गए हैं उसे समझने के लिए पिछले एक साल की पाकिस्तानी राजनीति पर नजर डालना पर्याप्त है। हालांकि बेनजीर भुट्टो की मौत के बाद हुए चुनावों में स्वाभाविक कारणों से उनकी पाकिस्तान मुस्लिम लीग को पीपुल्स पार्टी से कम सीटें मिलीं लेकिन उन्होंने अपने दल के समर्थन पर पीपीपी की निर्भरता का बखूबी लाभ उठाया है। पाकिस्तान में सरकार का नेतृत्व भले ही कोई और दल कर रहा हो, एजेंडा तो नवाज शरीफ का ही पूरा किया जा रहा है। शातिराना कूटनीति का परिचय देते हुए, अपनी मांगें न माने जाने की स्थिति में वे संघीय सरकार से अपने मंत्रियों को हटाने जैसा बड़ा कदम उठाने से भी नहीं चूके थे। लेकिन उन्होंने सरकार के प्रति समर्थन भी जारी रखा। ऐसा करते हुए उन्होंने गंभीर राजनैतिक दबाव बनाते हुए भी ऐसी स्थितियां पैदा नहीं होने दीं जिससे तत्कालीन राष्ट्रपति को किसी किस्म के हस्तक्षेप या राजनैतिक लाभ का मौका मिलता। एक ओर उन्होंने मुशर्ऱफ विरोधी ताकतों को एकजुट बनाए रखा तो दूसरी ओर मुशर्ऱफ समर्थकों को सत्ता के आसपास फटकने नहीं दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने पाकिस्तान मुस्लिम लीग (कायदे आजम) के चौधरी शुजात हुसैन और परवेज इलाही जैसे उन नेताओं के साथ भी संपर्क बनाए हैं जिन्हें कुछ महीने पहले तक उनका (शरीफ) घोर राजनैतिक शत्रु समझा जाता था। पृष्ठभूमि में चल रही इन गतिविधियों का लक्ष्य सिर्फ पीपीपी नेतृत्व पर ही दबाव बनाना नहीं था बल्कि परवेज मुशर्ऱफ को भी परेशानी में डालना था।
लेकिन वह तब की बात है जब परवेज मुशर्ऱफ पाकिस्तान के एकछत्र शासक थे। उनके चले जाने के बाद पूरी तरह बदल चुके राजनैतिक परिदृश्य में नवाज शरीफ के सामने ऐसी कोई मजबूरी नहीं है कि वे मौजूदा संघीय सरकार की स्थिरता सुनिश्चित करें। पाकिस्तानी राजनीति की परंपराओं के अनुरूप ही, परवेज मुशर्ऱफ अपने सत्ताच्युत होने के कुछ ही घंटों बाद राजनैतिक लिहाज से अप्रासंगिक हो गए। उनके हटने पर पाकिस्तान के कोने-कोने में जिस तरह खुशी मनाई गई उससे साफ हो गया कि उनकी अलोकिप्रयता दल-निरपेक्ष, क्षेत्र-निरपेक्ष और संप्रदाय-निरपेक्ष थी। उन्हें आने वाले कई वर्षों तक इस स्थिति में बदलाव की कोई उम्मीद नहीं करनी चाहिए। परवेज मुशर्ऱफ की तानाशाही सत्ता ने पाकिस्तानी राजनीति में कम से कम एक सकारात्मक योगदान जरूर दिया था और वह था उनके द्वारा प्रताड़ित राजनैतिक दलों को मजबूरन एक मंच पर लाकर खड़े करने का। इस प्रक्रिया में भी नवाज शरीफ ने अहम भूमिका निभाई थी।
मुशर्ऱफ के विरुद्ध एकजुटता असल में पाकिस्तान में लोकतंत्र समर्थकों की एकजुटता का प्रतीक बन गई थी और इस प्रक्रिया में दलों की विचारधारात्मक प्रतिबद्धताएं एवं मतभेद गौण हो गए थे। राजनीति के विपरीत ध्रुवों पर खड़े दल और नेता भी साथ-साथ आ जुटे थे क्योंकि उनका पहला लक्ष्य देश में लोकतंत्र को किसी तरह पुनर्जीवित करना और ऐसा होने तक अपना राजनैतिक अस्तित्व बचाए रखना था। अब वह लक्ष्य हासिल हो चुका है। अब परवेज मुशर्ऱफ के रूप में उनके सामने मौजूद साझा चुनौती भी समाप्त हो गई है। ऐतिहासिक रूप से परस्पर शत्रुता की हद तक राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता रखती आईं दो शीर्ष पाकिस्तानी पार्टियों को जोड़े रखने वाला कोई तत्व अब मौजूद नहीं है। पिछले चुनाव में बहुमत से वंचित रह गई पीपुल्स पार्टी के सामने मुस्लिम लीग (नवाज) का समर्थन पाने की मजबूरी यथावत है। लेकिन नवाज शरीफ हर किस्म की राजनैतिक विवशता से मुक्त हो चुके हैं। आज यदि पाकिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार गिर भी जाती है तो इसमें उनका कोई नुकसान नहीं है, बल्कि आज नहीं तो कल वे देश में यही हालत पैदा करने वाले हैं। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पद पर इफ्तिखार मोहम्मद चौधरी की बहाली न किए जाने पर विपक्ष में बैठने की उनकी धमकी को इसी संदर्भ में लिया जाना चाहिए।
Friday, August 22, 2008
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2 comments:
पाकिस्तान में स्थिर राजनीतिक हालात भारत के हित में, मगर वहाँ अभी उथल-पुथल का दौर चलेगा, ऐसा लगता है. नवाज शरीफ को भी सत्ता में आना पसन्द होगा. देखें क्या हालात बनते है.
सही विश्लेषण.
सही है....फिलहाल तो नवाज की पांचों उंगलियां घी में हैं
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