Thursday, September 4, 2008

अमेरिकी वर्चस्व के अंत की शुरूआत हो रही है?

-बालेन्दु शर्मा दाधीच

इधर हम भारतीय जम्मू-कश्मीर के विरोध प्रदर्शनों पर ध्यान लगाए हुए थे और उधर काकेशस क्षेत्र में कुछ ऐसी महत्वपूर्ण घटनाएं घटित हो रही थीं जिन्हें अंतरराष्ट्रीय राजनीति के ज्ञानी लोग मौजूदा एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था के लिए गंभीर खतरा मान रहे हैं। अमेरिकी वर्चस्व को रूस ने दो दशकों में पहली बार एक गंभीर चुनौती दी है।

इधर हम भारतीय जम्मू-कश्मीर के विरोध प्रदर्शनों पर ध्यान लगाए हुए थे और उधर काकेशस क्षेत्र में कुछ ऐसी महत्वपूर्ण घटनाएं घटित हो रही थीं जिन्हें अंतरराष्ट्रीय राजनीति के ज्ञानी लोग मौजूदा एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था के लिए गंभीर खतरा मान रहे हैं। अमेरिका और उसके मित्र देशों के आग्रहों, मांगों और चेतावनियों के बावजूद रूस ने पड़ोसी जार्जिया के दो बागी स्वायत्त क्षेत्रों अबखाजिया और उत्तरी ओसेतिया में फैसलाकुन सैनिक दखल करके न सिर्फ वहां से जार्जियाई फौजों को खदेड़ दिया है बल्कि उन पर इतना गंभीर प्रहार किया है कि जार्जिया की सैन्य शक्ति आने वाले कई वर्षों के लिए पंगु हो चुकी है। खुद अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश की अपील को नकारते हुए रूस ने इन दोनों बागी गणराज्यों को संप्रभु राष्ट्रों के रूप में मान्यता भी दे दी है। पिछले डेढ़ दशक में रूस ने पहली बार विश्व व्यवस्था के एकमात्र नियामक और नियंता अमेरिका को इतनी स्पष्ट और गंभीर चुनौती दी है। यह दुनिया के राजनैतिक घटनाक्रम पर अमेरिकी पकड़ के कमजोर होने का लक्षण तो है ही, उस शीतयुद्ध की वापसी का पहला स्पष्ट संकेत भी हो सकता है जो सोवियत संघ के पतन और विघटन के बाद मोक्ष को प्राप्त हुआ मान लिया गया था।



1991 में बुश सीनियर के राष्ट्रपति-काल में निर्विघ्न अमेरिकी वर्चस्व सुनिश्चित करने वाली नई विश्व व्यवस्था की नींव रखी गई थी। इस व्यवस्था ने सोवियत या रूसी प्रतिद्वंद्विता को अप्रासंगिक बना दिया और गुटनिरपेक्षता जैसी अवधारणाओं को अर्थहीन। इस व्यवस्था ने संयुक्त राष्ट्र को अमेरिका के सहयोगी संगठन में बदल दिया और राष्ट्रों की बहबूदी एवं बर्बादी को अमेरिका के साथ उनके संबंधों से जोड़ दिया। यह व्यवस्था आज भी मौजूद है। लेकिन कल रहेगी या नहीं, कहना मुश्किल है।

नहीं, अमेरिका को चीन और भारत (चिन्डिया) जैसी उभरती हुई आर्थिक शक्तियों से कोई तात्कालिक खतरा नहीं है क्योंकि अमेरिका ने उन्हें अपनी जरूरतों के अनुसार साध लिया है। यूरोपीय संघ की एकजुटता और आर्थिक आत्मनिर्भरता भी उसके लिए कोई गंभीर त्वरित चुनौती नहीं है। इतना ही नहीं, कभी तेल संकट के जरिए तो कभी अपनी सरजमीं से संचालित आतंकवाद की बदौलत अमेरिका की चिंता का सबब बने मुस्लिम राष्ट्र भी उसके लिए किसी चिरस्थायी समस्या के प्रतीक नहीं हैं। ये सभी आर्थिक, राजनैतिक या सैन्य संदर्भों में अमेरिका पर किसी न किसी रूप से निर्भर बने हुए हैं। अमेरिकी वर्चस्व को अगर चुनौती मिलने जा रही है तो एक बार फिर रूस से ही, जो सोवियत संघ के विघटन के बाद की दीन-हीन अवस्था से उबरकर क्षेत्रीय शक्ति से विश्व महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है। खास बात यह है कि इस बार का रूस सोवियत संघ की भांति साम्यवादी नहीं है। वह साम्यवाद के जमाने की समस्याओं से मुक्त, एक मजबूत अर्थव्यवस्था तथा अपने किस्म की एक अनोखी किंतु लोकतांत्रिक राजनैतिक व्यवस्था से लैस है।

अबखाजिया और दक्षिणी ओसेतिया में फौजी कार्रवाई के बाद रूसी संसद ने एक प्रस्ताव पास कर अपने देश के नेतृत्व से अपील की थी कि वे 1990 के दशक में खुद को स्वतंत्र घोषित कर देने वाले जार्जिया के इन दोनों स्वायत्त क्षेत्रों को संप्रभु राष्ट्रों के रूप में मान्यता दे दें। सोवियत संघ के विघटन के बाद से जार्जिया अमेरिका और यूरोपीय देशों का मित्र बन चुका है और रूस के साथ उसके संबंध कोई बहुत अच्छे नहीं हैं। रूसियों का आरोप है कि अमेरिकी और यूरोपीय देशों की शह पर ही जार्जिया ने पिछले दिनों इन दोनों क्षेत्रों के खिलाफ सैन्य कार्रवाई शुरू की थी। जब रूसी संसद ने अबखाजिया और दक्षिणी ओसेतिया को मान्यता दिए जाने की बात कही तो पिछली 25 अगस्त को अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने रूसी नेतृत्व से इसे नकारने की मांग की। इसके 24 घंटे के भीतर ही रूसी राष्ट्रपति मेदवेदेव ने दोनों क्षेत्रों को मान्यता देने की घोषणा कर दी। अंतरराष्ट्रीय राजनीति के लब्धप्रतिष्ठ विश्लेषक सायमस मिलने ने `द गाजिर्यन` में लिखा है कि इस तरह रूस ने अमेरिका को साफ संकेत दे दिया कि दक्षिणी ओसेतिया पर सात अगस्त को शुरू किए गए जार्जियाई हमले से जो जंग शुरू हुई थी उसका अंतिम परिणाम तय हो चुका है। इसे लेकर किसी किस्म के मोलभाव की गुंजाइश नहीं है और अमेरिकी साम्राज्य के नियंता भले ही कुछ भी चाहें या कहें, अबखाजिया तथा दक्षिणी ओसेतिया के जमीनी हालात में अब कोई बदलाव नहीं हो सकता।

5 comments:

संजय बेंगाणी said...

एक भारत है जो अपने पड़ोसी पिल्ली देशों को भी नहीं नाथ पा रहा है.

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत ही सुंदर,सही और सूचनात्मक आलेख।
संजय जी, वहाँ की परिस्थितियों मे भारत की परिस्थितियों मे अंतर है। वहाँ की परिस्थियों से सीख कर निर्णय करेंगे तो परिणाम भारत के लिए उलट ही होंगे। विश्लेषण भी इसी लिए प्रस्तुत नहीं कर रहा हूँ।

Tarun said...

Sahi keh rahe hain lekin ye thora purani baat ho gayi. Ye sab to tabhi ho gaya tha jab Olympic ka pehla din tha. ab to sab wapas apne apne gharondon me laut gaye hain.

Dr. Amar Jyoti said...

रूस यदि 1917 से पहले का साम्राज्यवादी रूस बन कर अमेरिका को चुनौती देता भी है तो तीसरी दुनिया
के विकासशील/अर्द्धविकसित/अविकसित देशों को अल्पकालिक राहत के अतिरिक्त और क्या मिलेगा?

Balendu Sharma Dadhich said...

आप सबका धन्यवाद। तरुण भाई, मामला ठंडा नहीं हुआ है, बल्कि शुरू हुआ है। कल ही अमेरिकी उपराष्ट्रपति डिक चेनी रूस को चुनौती देने के अंदाज में उसके पड़ोसी राष्ट्रों के दौरे पर गए हैं। उधर रूस ने अमेरिका को चेतावनी दी है कि वह जार्जिया को नए सिरे से हथियारबंद न करे (जिसे वह शक्तिहीन कर चुका है)। यूरोप और नाटो में भी हलचल मची हुई है और रूस ने काला सागर में जवाबी कार्रवाई करने की धमकी दी है। मुझे लगता है कि ये घटनाएं विश्व राजनीति पर दूरगामी प्रभाव डालेंगी। जार्जिया रूस का पड़ोसी है और अमेरिका के लिए बहुत महत्वपूर्ण सहयोगी। इराक में तैनात विदेशी सैनिकों की संख्या के हिसाब से अमेरिका और ब्रिटेन के बाद जार्जिया का तीसरा स्थान है। अमेरिका उसे कमजोर पड़ने नहीं देगा और रूस मजबूत नहीं होने देगा।

इतिहास के एक अहम कालखंड से गुजर रही है भारतीय राजनीति। ऐसे कालखंड से, जब हम कई सामान्य राजनेताओं को स्टेट्समैन बनते हुए देखेंगे। ऐसे कालखंड में जब कई स्वनामधन्य महाभाग स्वयं को धूल-धूसरित अवस्था में इतिहास के कूड़ेदान में पड़ा पाएंगे। भारत की शक्ल-सूरत, छवि, ताकत, दर्जे और भविष्य को तय करने वाला वर्तमान है यह। माना कि राजनीति पर लिखना काजर की कोठरी में घुसने के समान है, लेकिन चुप्पी तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है। बोलोगे नहीं तो बात कैसे बनेगी बंधु, क्योंकि दिल्ली तो वैसे ही ऊंचा सुनती है।

बालेन्दु शर्मा दाधीचः नई दिल्ली से संचालित लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक। नए मीडिया में खास दिलचस्पी। हिंदी और सूचना प्रौद्योगिकी को करीब लाने के प्रयासों में भी थोड़ी सी भूमिका। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन से पुरस्कृत। अक्षरम आईटी अवार्ड और हिंदी अकादमी का 'ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार' प्राप्त। माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी एलुमिनी।
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- मतान्तरः राजनैतिक ब्लॉग
- आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2007, न्यूयॉर्क

ईमेलः baalendu@yahoo.com